Wednesday 11 May 2011

मंज़िल तक...






कुछ सपने, कुछ ख्वाब,
अपनी राह ढूंड लेते हैं.
ड्रिड हों इरादे अगर,
तो अपनी मंज़िल पा लेते हैं.

  थोड़ी उदासी, थोड़ी झंझनाहट -
  यह तो हमारे साथी हैं.
  रास्ते के रोड़ों के बाद ही,
  डगर नज़र आती है.

कठिनाइयां और बाधाएं तो...
जीवन रंगीन बनातें हैं-
इन्हीं के बहाने तो जनाब हम,
ईश्वर को याद कर पातें हैं.

  कोई भी जंग
  दो बार लड़ी जाती हैं -
  एक बार अपने मन में
  और दूसरी बार सचाईं में.

मंज़िल के सपने तो
बहुत देखा करते हैं...
अडिग व साहसी ही -
यह सफ़र तय किया करते हैं.