Tuesday 25 September 2018

हमारा क्षितिज


चलते चलते चल रहे हैं

कदमो से पूछो कहाँ

चलते चलते पहुँच ही जायेंगे

मंज़िल है हमारी जहाँ

एक कदम जो लड़खड़ायेगा

तो दूसरा कर लेगा उसे  स्थिर

आगे आगे बढ़ते जायेंगे

कोई कैसा चिंतन फिर

हवाएं हैं कुछ बिगड़ी हुई

सूरज में है कुछ ज़्यादा तपन

कदम फिर भी बढ़े जा रहे हैं

अपनी ही धुन में मगन

चलते चलते चल रहे हैं

जीवन की आपाधापी से और भी संयुक्त

हमने नहीं चुना है इनको

चुनौतियों ने किया है हमे नियुक्त

आज़मा चूका है ज़माना हमे

अपने कहाँ आज़मा पाते  हैं

बस्ते हैं हम उन में ज़रा

ज़रा ज़रा उनका हम बनाते हैं

तो फिर साथ साथ चलते रहो

कदमो से पूछो कहाँ

तुफानो से घिरकर पा जायेंगे हम हमारा  क्षितिज

आखों की नमी से परिपूर्ण और अक्षित